कुछ भी कहते हुए अब डर लगता है
अब तो ये कहते हुए भी डर लगता है
अपनी मर्ज़ी से सांसें भर रहा है
आदमी वो थोडा निडर लगता है
आये हैं मेरे दर पे आज वो
दिन का नवां पहर लगता है
उठेगा कुछ देर में सांप के फन की तरह
झुका हुआ कोई आदमी का सर लगता है
तब कलम से सर फक्र से ऊंचा करने का होता था
अब फक्र से सर कलम करने का हुनर लगता है
सिसकिओं से इक आंसू जीभ तक पहुंचा
जैसे चख लिया हो कोई समंदर लगता है
ना जाता रकीब1 के घर बार बार पर
उसके घर से 'उसका' घर लगता है
इक दफा जो गया तो फिर आता ही नहीं
वक़्त पे भी मेरे यार का असर लगता है
आरजूओं2 की तिश्नगी3 कब बुझी है पन्त
कहीं रह ही गयी है कोई कसर लगता है
Image Courtesy: Flickr
1 – रकीब – Rival
2 – आरजू – Desire
3 – तिश्नगी – Thirst
3rd & 4th lines are the best!!! :-)-)-)
ReplyDeleteLoved it...loved every couplet...shows how we all are a lil disappointed but never ultra complaining nor too lost in dispair....
ReplyDeletewe can sit n discuss ur version when we meet next :-)
sai hai....meaningfull....:)
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