त्रिवेणियाँ

१. 43.jpg

गर्व से दमका था जो खैरात की चांदनी फैलाये  
अमावसी की चादर ओढ़े वो चाँद अब शर्माता है

मेरे यार, उधारी के चिराग कब तक रोशन रहेंगे 

२.

गोल, मुलायम फुल्के तेरे आज बस मेरी यादों में सही  
पर तुझ बिन अब भी वैसी ही रोटियाँ सिका करती हैं

कुछ गोल, कुछ मुलायम, तो कुछ फूली फूली हुईं सी

३.

दंगों के मलबे में जो एक हुए थे मस्जिद ओ मंदिर
आओ अब उसी ढेर से एक हस्पताल बनवाया जाये 

सजदे जिसके लिए किये थे, आज उसी को पाया जाये 42.jpg

४.

सोता हूँ कि सपनों में शायद मिल जाए कहीं तू, पर
हर लम्हा-ए-वस्ल1 पर, खुद को जागा हुआ पाया है

अब हर सुबह तेरी जगह तेरे ख्वाब उठाया करते हैं

 

५.

ज़िन्दगी के जिन जिन पन्नों पे तेरा जिक्र है
उन पे यादों के bookmarks लगा के रक्खे हैं

ज़रूरी सबक revise करने में आसानी रहती है

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1वस्ल = Meeting, union

दोहे


गहरी गहरी बात करे, और ऊंचा दाम कमाए  40 (1)
करनी पर जो आन पड़े, सोचे और सकुचाये

माटी सबकी इक है, चाक औ कुम्हार इक,
पानी भर का फर्क है, कुछ क्रूर कुछ नेक.

समय का धर्म बड़ा सरल है, चलता सीध-ए-नाक,
मुड़कर कभी ना देखता, हम कब समझेंगे बात.

जीवन सबका भिन्न है, हैं रहन सहन अनेक, 41.jpg
काल ना कोई भेद करे है, अंत है सबका एक.

जीवन का मोती ढूँढने सब सागर में गोत लगाये,
अपने ज्ञान की नदिया ही, आखिर प्यास बुझाये.

शशि1 के जैसा व्यापारी, हुआ ना अब तक हाय,
रवि की किरनें उधार ले, खुद ही नाम कमाए.

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शशि – Moon

प्यास बरकरार रख - 2

पहला भाग यहाँ / First Part Here

 

हर हर्फ़1 में जो पीड़2 हो
वक़्त गूढ़ गंभीर हो
फीके क्षणों की धार में
थोड़ी हँसी को घोल के  
परिहास3 बरकरार रख
तू प्यास बरकरार रख39.jpg

गुलशन जब बेनूर हो
और वसंत कुछ दूर हो
क्रूर खिज़ाओं4 में डटकर
अपनी आरजूओं के
अमलतास5 बरकरार रख
तू प्यास बरकरार रख

नौ भावों से है बना  
ये ज़िन्दगी का चित्र है
इक भी कम नहीं पड़े
खुद में नवरसों का तू
एहसास बरकरार रख
तू प्यास बरकरार रख

कल  ही कल की नींव था 38.jpg
कल ही कल का सार है 
कभी भी ये भूल मत 
भविष्य को तू साध पर
इतिहास बरकरार रख
तू प्यास बरकरार रख

पहले वार में कहाँ
कटे कभी पहाड़ हैं
हर नदी मगर मिली
अन्तः अपने नदीश6 से
बस, प्रयास बरकरार रख
तू प्यास बरकरार रख

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हर्फ़ - Word
पीड़ - Pain
परिहास - Humour
खिज़ा - Autumn, Decay
अमलतास - A flowering tree (also known as golden shower tree)
नदीश - Sea

प्यास बरकरार रख - 1

 

धूप हो कड़ी तो क्या 36.jpg
तीरगी1 घनी तो क्या
लक्ष्य का अमृत भी तू 
पायेगा पर इतना तो कर
प्यास बरकरार रख
तू प्यास बरकरार2 रख

मंजिलें कभी कभी
अदृश्य3 जो लगें तुझे
तू तनिक आराम कर
एक गहरी सांस भर
आस बरकरार रख
तू प्यास बरकरार रख

राह हो, थकान हो
बाधाएँ तमाम हों 37.jpg
नींद भी गर ले पथिक
जगे हुए ख्वाब संग
रास बरकरार रख
तू प्यास बरकरार रख

हाँ, छूटते हैं आसरे
हाँ, छूटते हैं काफिले
पर सांस छूटने तलक
दिल में हौसलों का तू
वास बरकरार रख
तू प्यास बरकरार रख

बस धड़कने से ही नहीं
दिल हो जाता दिल है
आदमी बने इन्सान
इसीलिए दिल में तू
आभास4 बरकरार रख
तू प्यास बरकरार रख

 

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तीरगी: Darkness
बरकरार रख: Don't let it die
अदृश्य: Invisible
आभास: Feelings

अश्क थामते हैं

 

हाँ मंजिलों में झालरें नहीं लगायीं 34.jpg
लेकिन राहों के चिराग जलाये हैं हमने
जुगनू बनके उजाले फैलाते हैं पर
मकां जलाके रौशनी करने की आदत नहीं

उन सर्द रातों में साथ निभाया हैं
तेज़ बरसातों में साथ निभाया है
पतझड़ में तो खुद विदा ले लेते पर
तूफानों में हमें बिखरने की आदत नहीं

तेरे तगाफुल1 की गर्मियां क्यों चाहिए 
जब तेरे स्पर्श की नरमी ही काफी थी
ज़बां पे मिसरी से पिघलते हैं पर
भट्टियों में लोहों से गलने की आदत नहीं 35.jpg

मैंने खूँ से ख़त नहीं लिखे थे मगर
दिल निचोड़ के वो काग़ज़ी गुलाब रंगे थे
पत्तों पे शबनम2 से फिसलते हैं पर
उफनती नदियों सी बहने की आदत नहीं

फटे होटों से भी बांटी हैं मुस्कुराहटें
महीन टुकड़ों से फिर दिल बुना है
इश्क नहीं अश्क3 थामते हैं अब पर
टीस, घाव, दर्द - दिखाने की आदत नहीं

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तगाफुल: To ignore
शबनम: Dew
अश्क: Tears

 

दे कोई नुस्खा

 

तुझे उम्मीद भी थी और मुझे थी जिद्द भी,31.jpg
न मैं यहाँ से चला न तुम वहां से आ सके

हिज्र1 और विसाल2 के बीच था सिर्फ
पर्दा ए रस्मो रिवाज़ जो हम ना उठा सके

तू आई तो होगी ज़रूर मेरी मजार पे
ऐसा भी क्या की ये वादा भी ना निभा सके

वक़्त, काम, दोस्त, वाल्देन3, समाज
ऐसी झूठी तो तू नहीं कि बहाने बना सके

रहने भी दे यार ये बातें सरहदें4 मिटाने की,
दे कोई नुस्खा5 जो दिलों से दरारें मिटा सके

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हिज्र: Separation/Absence
विसाल: Meeting
वाल्देन: Parents
सरहदें: Borders
नुस्खा: Remedy

कोई है

जब अँधियारा गहराता है
और चाँद कहीं सो जाता है 29.jpg
जब शाम का गहरा साया
हर नयी सहर1 पर छाता है
तब रौशनी का भान लिए
दूधिया फैली चांदनी सा,
कोई तो राह दिखाता है

जब सन्नाटा और ख़ामोशी
ही कान में बजती जाती है
सरगम और संगीत हो चुप
आवाज़ भी थक सी जाती है
तब ग़म को इक साज़ बनाकर
तान छेड़कर, नाद बजाकर
कोई तो सुर में गाता है

जब नज़र दूर तलक जाकर
रूआंसी सी लौट के आती है
कहती है कहीं कुछ और नहीं
चहुँ ओर फकत2 इक उदासी है
तब साँसों की आवाज़ में घुल
और सन्नाटे के शोर में मिल
कोई तो आस बंधाता है

जब वक़्त की चलती रेतघड़ी3 से
हर पल छन-छन के गिरता है 33.jpg
और काल का बहता दरिया भी
कुछ थम-थम कर के चलता है
तब दुःख से भारी लम्हे चुनकर
और यादों की झालर में बुनकर
कोई तो समय कटाता है

जब खुद की ही परछाई
पर की छाया हो जाती है
मुरझायी और झुकी झुकी 
अपनी काया हो जाती है
तब उम्मीद का स्पर्श4 लिए
हिम्मत की डोर बांधकर
कोई तो मुझे चलाता है

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सहर – Morning
फकत – Only
रेतघड़ी – Hourglass
स्पर्श – Touch

ज़िन्दगी को चखता जा

 

और मिलें ना कहने वालें 28.jpg
तू खुद से बातें करता जा |

अरण्य1 घने हों, राह अँधेरी 
तू मन को रोशन करता जा | 
 
रास्ते के काँटों को उखाड़कर
तू रात की रानी रखता जा |

कट के ना गिर गिरना हो तो
तू आबशारों2 सा गिरता जा |

तेरे मन में जो कुछ भी हो
तू वही जुबान पे रखता जा |

मीठी, खट्टी, तीखी, कसैली3
तू ज़िन्दगी को चखता जा |

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अरण्य : Forest 
आबशार : Waterfall
कसैली : Bitter

कुछ लोग उसे मसीहा कहते हैं

 

सरापा1 इश्क ही से भरपूर था वो,
कुछ लोग उसे मसीहा कहते हैं |26.jpg

अंदाज़ उन के भी अजीब कम नहीं, 
कभी निहां2 कभी नुमाया3 रहते हैं |

उनके दरमियाँ4 बस मोहब्बत ही थी,
बाकी कहें, कैसे इक दूजे को सहते हैं |

आखिर डूब गया, वो जो कहता था,
कि आ चल दोनों संग संग बहते हैं |

वक़्त धीमे धीमे रिसता5 ही जायेगा,
ऐसे बाँध यक-ब-यक6 नहीं ढहते हैं |

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सरापा - From head to toe
निहां - Hidden
नुमाया - Visible
दरमियाँ - Inbetween
रिसना - Leakage
यक-ब-यक - Suddenly

निर्वात

 

निर्वात1 होता है वहाँ

जहाँ कुछ और नहीं होता

 

निश्छल, नि:स्वार्थ2

मानो कहता है

जो तुम ले सको ले लो

जो बच जायेगा वो मेरा

 

अरर्र मेरा नहीं, मैं

जो बचा वहाँ मैं

इतना स्वतंत्र कि 

कभी कैद नहीं होता

आकाशगंगा की

अनंत सीमाओं में भी

 

फिर क्यूँ हम डरते हैं

निर्वात से भागते हैं

नहीं चाहते रहे वो

हमारे अन्दर या

हम वहाँ

 

ना हमें निश्छलता भाई 

ना स्वतंत्रता और ना पावनता

हम बस

मनुष्य ही बनकर रह गए 

 

हम निर्वात में नष्ट होते हैं

नहीं सह सकती हमारी

कमज़ोर धमनियां3 

इतनी शुद्धता, पावनता

 

हम इतने कलुषित हो गए हैं

कि पावनता भक्षक हो गयी है

 

वातावरण धंसे हैं सारे

निर्वातावरण में ही

यही है जो होते हुए भी

नहीं होने का रूप लिए है

 

निर्वात होता है वहाँ

जहाँ कुछ और नहीं होता

 

निर्वात सत्य है - सत्य

'कुछ और' कभी नहीं होता 

बस सत्य होता है

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1. निर्वात = Vacuum

2. नि:स्वार्थ = Selfless

3. धमनियां = Nerves

ख्वाब

 

ख़्वाबों ने ख़्वाबों में इक ख्वाब देखा है 24.jpg
ख्वाबों में इक ख्वाब लाजवाब देखा है 
पूरे होने की उम्मीद जितनी भी हो सो हो
उन्होंने क्षणभंगुर ख़्वाबों का रुबाब देखा है

ख्वाब जो आँखों की सरहद पार ना कर सके
ख्वाब जो हकीकी से आँखें चार ना कर सके
खिलने का मौका मिल सका ना जिन्हें
ख्वाब जो अपने यार का दीदार ना कर सके

ख्वाब जो पूरी नींद से भी महरूम रह गए
ख्वाब जो निराशाओं के सितम सह गए
खुली हुई आखों को भी परेशान कर करके
ख्वाब जो पल भर में कई दास्ताँ कह गए

ख्वाब जो हवन की जलती हुई आग थे 23.jpg
ख्वाब जो जोग और बिहग के राग थे
धूपबत्ती के धूएँ की महक से फैले हुए
ख्वाब जो रंगीन बुलबुलों का  झाग थे

ख्वाब जो अब भी कितनों के जीवन की डोर हैं
ख्वाब जो आज भी रातों में बिखरे चारों ओर हैं
जितने चले गए हों चाहे पर आगे और भी आयेंगे
ख्वाब जो पाकर अमरत्व मस्ती में सराबोर हैं

 

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एक आदमी और मरा है

 

कुछ दोस्तों के प्रहार से
कुछ नियति की मार से 
एक आदमी और मरा है
पीठ में हो या दिल में
कहीं कोई खंजर गड़ा है

गिरकर उठकर बारम्बार 17
सहके वक़्त की थोड़ी मार
एक आदमी और मरा है
सांस तो चल ही रही है
इसीलिए ज़ख्म हरा है

जीवन की भेड़चाल से
या बंदूकों की नाल से 
एक आदमी और मरा है
दिमाग मेरा खोया-सोया
मन वैसे ही अधमरा है

धर्मों की पोथी पढ़कर या
कर्मों का लेखा लिखकर
एक आदमी और मरा है
फूटना था अपने सर पे ये,
अपने ही पापों का घड़ा है

ख्वाबों का अम्बार लिए
कुछ दारुण पुकार लिए
एक आदमी और मरा है
शीत के अंधड़ तूफानों में
इक पीपल शायद गिरा है

 

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Dedicated To: Srikant Verma’s poem Hastakshep/Magadh

वक़्त पे यार का असर लगता है

 

कुछ भी कहते हुए अब डर लगता है

अब तो ये कहते हुए भी डर लगता है Sixteen

 

अपनी मर्ज़ी से सांसें भर रहा है 

आदमी वो थोडा निडर लगता है

 

आये हैं मेरे दर पे आज वो

दिन का नवां पहर लगता है

 

उठेगा कुछ देर में सांप के फन की तरह

झुका हुआ कोई आदमी का सर लगता है

 

तब कलम से सर फक्र से ऊंचा करने का होता था

अब फक्र से सर कलम करने का हुनर लगता है 

 

सिसकिओं से इक आंसू जीभ तक पहुंचा 

जैसे चख लिया हो कोई समंदर लगता है

 

ना जाता रकीब1 के घर बार बार पर

उसके घर से 'उसका' घर लगता है

 

इक दफा जो गया तो फिर आता ही नहीं

वक़्त पे भी मेरे यार का असर लगता है

 

आरजूओं2 की तिश्नगी3 कब बुझी है पन्त

कहीं रह ही गयी है कोई कसर लगता है

 

 

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1 – रकीब – Rival

2 – आरजू – Desire

3 – तिश्नगी – Thirst

सपने

 

बंधन कुछ कहने को तो कच्चे होते हैं

टूटें तो हर ओर सिर्फ परखच्चे होते हैं

 

आँख मूँद तमाशा देखते रहे हैं सारे बड़े लोग

'ये हो क्या रहा है' पूछने को बस बच्चे होते हैं

 

ज़मीर के हमाम में मैले कुचले से लोग

भीड़ में आकर सब के सब अच्छे होते हैं 

Fourteen

 

मेहनत, लगन, उम्मीद - जब तक सांस चले

जो ना मिले वो खट्टे अंगूरों के गुच्छे होते हैं

 

दुनिया गफलत में ही डालती रहेगी तुझे पन्त

तेरे सपने सच ना भी हों लेकिन सच्चे होते हैं

 

 

 

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परिक्रमा

 

वक़्त भुला देता है2826692101_b695584938_m
ग़म हँसी वेदना उल्लास
बीतते वक़्त के साथ ही
सूक्ष्मतर होती जाती है
आदमी की याद में कैद
उसकी बीती हुई ज़िन्दगी
उम्मीद नाउम्मीद के बीच
फंसा हुआ उसका भविष्य
सिमटता जाता है
संग्रहालयों में बंद
इंसानियत का इतिहास
दुनिया को और छोटा 
करता जाता है भविष्य


सिमटता जाता है
ज़िन्दगी का लैंड स्केप
कैनवास के बीच बने हुए
इक छोटे से बिंदु में
उसी बिंदु से शायद
जहाँ से फट पड़ा था ब्रह्माण्ड  
बीतते वक़्त के साथ
लगता है सब सिमटता जाता है
उसी बिंदु में

जैसे घूमती धरती के मानिंद
वक़्त इक परिक्रमा पूरी कर आया हो
अपने किसी आराध्य प्रेम की
जो सूरज की भांति उर्जा देता है
चलते वक़्त को
और वक़्त बिना ये सोचे की
वो अंत के करीब है या

फिर से आदि पे पहुँच गया है
शुरू कर देता है अगली परिक्रमा

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चाहत

 

फूलों की छुअन में इक नुकीला एहसास है2336528179_44c3671ceb_m
इक अदद मुस्कान में थोडा लग रहा प्रयास है
खुर्द से इकरार में भी कुछ तो विरोधाभास है
ये मुसाफिर इतना चल कर है अब ये कह रहा
रह गयी थोड़ी सी दूरी वो मिटाना चाहता हूँ

लम्हा ए दीदार से मिट चुकी जो प्यास है
कोई लफ़्ज़ों से करे इसके दर्द का इलाज़ है
आलम ए महफ़िल लगता अब कुछ ख़ास है
अजब चाहत है ये दिल की है अब ये कह रहा
दूर जाकर यूँही फिर से पास आना चाहता हूँ

इक अरसे से होती जा रही जो कैसी ये तलाश है
आखिर ढूँढने को क्या - छानी पूरी कायनात है
खोजते निकले दिन सारे नहीं चैन इक रात है
मिल गयी मंजिल उसे जो है अब ये कह रहा
ढूंढता हूँ औरों में जो वो खुद में पाना चाहता हूँ

नब्ज़ होती कुछ शिथिल है थोडा छा रहा उन्माद है

लगता है की रक्त बस बाहर बहने को बेताब है
भावनाएँ लाख लगती कि जैसे गिर रहा प्रपात है
जागती आँखों का भी हर स्वप्न है अब ये कह रहा
आँख मूँद सब छोड़ छाड़ बस सो जाना चाहता हूँ

क्या है जीवन - किसी रूह पर इक जिस्म का लिहाफ है
क्या है जीवन - गिनती भर की साँसों का ही हिसाब है
क्या है जीवन - अंतिम नींद की सहर तक का ख्वाब है
थक चुका मेरा अंतर्मन है हार कर अब ये कह रहा
दे चुका हूँ सब जवाब अब अंजाम पाना चाहता हूँ

 

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नामाबर

 

हिंद युग्म में पूर्व प्रकाशित Eleven


तू उठे तो उठ जाते हैं कारवें
मेरे जनाजे में ऐसा काफिला नहीं आता,

तू थी तो हर्फ़ हर्फ़ इबादत था
तेरे बिना दुआओं में भी असर नहीं आता

कभी हर राह की मंजिल थी तेरी गली
अब तेरे शहर से कोई नामाबर नहीं आता

एक आंसू नहीं बहाने का वादा था
निभाया, अब लहू आता है अश्क नहीं आता

मेरे दिल के दर्द, मेरी रूह के सुकूं
जान जाती है मेरी तू नज़र नहीं आता

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परजीवी

 

हिंद युग्म में पूर्व प्रकाशित

अकेलापन ले जाता है Six

अपने ही आप से दूर
खुद से बाहर होकर
खुद में झाँकने की
ज़रूरत नहीं मालूम होती

दूर से ही दिखती हैं अपनी
खुशियाँ खेलती, रंजिश कांपती 
ख़्वाब आँखें मलते,
उबासी लेता गम और
करवट लेती इच्छाएं

साफ़ दिखता है कि
मेरी ही सोच बढाती है उनको
जब वो चलती है उन में
रगों में खून के सतत
बहाव की तरह

हर विचार एक
ऊर्जा का संचार करता है
इनमें से किसी में
और वो और बढ़ते हैं
ताल में  पत्थर फैंकने से
निकली तरंगों की तरह

जब मैं बाहर हूँ इन सबके
तो ये सब मेरे नहीं हैं
कहीं और के हैं
जो मुझ में जी रहे हैं
एक परजीवी की तरह

और मैं इनका परिचारक
ता उम्र जीता रहा हूँ
इनके पोषण के लिए
इन्होने शने: शने:
मारा है मुझे

मेरी सोच को
नाभि रज्जू कि तरह
इस्तेमाल करके
इन्होने बूँद बूँद
चूसा है मुझे

पर ये सब मैं नहीं
तो मैं कौन हूँ
ये मुझसे नहीं
मैं इनसे नहीं
तो मैं किस से हूँ

यही विचार
तोड़ देता है
मेरा बुलबुले सा अकेलापन
और मैं 'जी' उठता हूँ
परजीविओं के जीने के लिए
नहीं, मैं मरने लगता हूँ 
फिर से |

शायद मरने लगना ही
जीने भर का नाम है|

मैं जानता हूँ
पानी में बढती तरंगों की तरह ही
एक दिन ये परजीवी भी
इतने बढ़ेंगे
कि अपना अस्तित्व खो देंगे
संसृति के इसी ताल में

और फिर से कोई एक और पत्थर फ़ेंक देगा

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आज और कल


हिंद युग्म में पूर्व प्रकाशित

आज कल्पना के गुलशन में
चटकी हैं अगणित कलियाँ,
कल जब काल की गर्मी से
ये सूखा मरुस्थल हो जाएगा
तब तुम मदमस्त निर्झरणी सी
मेरे ख्यालों के सभी उपवन
फिर खिलाने प्रिये आना

आज जग का आकाश भरा है
साधनों के असंख्य तारों से
कल मेरी इच्छा पूर्ति को
जब ये सारे तारे टूटेंगे
तब तुम उन टूटे तारों की
मेरी मांगी अर्जियां बनकर
साथ देने प्रिये आना

आज यौवन के सौष्ठव की
लपटों का चढ़ता सूरज
कल जब ढलती उम्र की
रजनी का तम छाएगा
तब साहस की किरण लिए
पूनम का सौम्य उजाला बन
तम हरने प्रिये आना

आज ध्वनियों का कोलाहल
फैला है जीवन के मेले में
कल मरघट के सन्नाटे में
जब मूक सभी हो जायेंगे
तब तुम कोयल की कूक सी
मेरे अंतर के राग सभी
गुंजित करने प्रिये आना

आज आरोह जो जीवन के
सुरों को ऊंचा किये जाता है
कल इस कालचक्र का अंतिम
अवरोह प्रिये जो शुरू होगा
तब बैठ काल के पुष्पक पर
मुझे जीवन स्त्रोत के शून्य में
सम्पूर्ण करने प्रिये आना

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ऐतबार उठाते हैं


किसी महफ़िल में तेरी बात जो कभी दिलदार उठाते हैं
कुछ बन्दे अशआर बहाते हैं तो कुछ तलवार उठाते हैं

घूमता पहिया है किस्मत का हुजूर देखो बस कल ही तक
आँख उठा ना सके थे जो, अब हाथ वो सरकार उठाते हैं

वो जब खुद भटकते फिर रहे प्रश्नों की भूल भुलैय्या में,
तब आप क्यों उलझे उलझे सवाल बार बार उठाते हैं

बाज़ार कितना और उठा, आदमी कितना और गिरा
बस यही तो जानने को हम सुबह अखबार उठाते हैं

कहाँ पर लेकर जाएगा ये दौर-ए-तैश-ए-आवाम देखो,
जहाँ चैन ओ अमन रखने को सब हथियार उठाते हैं

बुझी नफरत की आग तो हाथ तापना आखिर बंद हुआ,
अब उसी की राख अपने हाथ धोने को मेरे यार उठाते हैं

बरसों तलक रहकर मेरा हमराज़ आज कहा है उसने,
अब वक्त हो चला है पन्त, तुम्हारा ऐतबार उठाते हैं

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समर्पण


जिंदगी में ज़रूरी है
शायद
संघर्ष करना,
वक़्त के, हालात के,
बहाव से लड़ना,
विरुद्ध दिशा में तैरना
जिद्द करना
अड़े रहना

पर
ना जाने क्यों
यूँ भी लगता है
है उतना ही ज़रूरी
ये जानना की कब
बिना लड़े, प्रश्न या शक किये,
खुद को सौंप देना
उस बहाव को
इस विश्वास के साथ की
वो जनता है हमसे बेहतर
हमारी मंजिल

शायद यही समर्पण है

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वो वक़्त

हिंद युग्म में पूर्व प्रकाशित

वो वक़्त

किस्सों भरा प्रेम ग्रन्थ नहीं गढ़ा हमने
पर उस अल्प कथा का हर वरक था
मेरी हर कॉपी के आखरी पन्ने जैसा
सच्चा, मौलिक, - अपना

ना था पूरी उम्र का साथ अपने नसीब में
पर उस ज़रा से वक़्त का हर दिन था
गर्मियों की छुट्टियों के पहले दिन जैसा
उत्साहित, उतावला, - चंचल

कहने की बात नहीं कि कहा नहीं कुछ
पर अपनी खामोशिओं का सबब था
एकांत हरे उपवन में कोयल की कूक सा
सुरमयी, मीठा, - गुंजित

चाहत, यारी, इश्क, मोहब्बत पता नहीं
पर वो रिश्ता कुछ तो ख़ास था
छन के आती धूप और सूरजमुखी सा
अतुल्य, अनकहा, - अंजान

अंजाम से तो सदा वाकिफ थे ही हम
पर अदभुत वो विदाई का क्षण था
अंतिम परीक्षा की आखरी घंटी जैसा
आज़ाद, निश्चिन्त, - अंतिम

आदतन

कल शाम देखा था,
ऊंचे पर्वतों के ऊपर,
श्वेत बर्फ का लिपटा कम्बल
हरे पेडों के बॉर्डर से घिरा|

ऊंचाइयों पे पहुँच कर
देखा लोगों को खेलते
नर्म बर्फ पे गिरते पड़ते
स्की करते बंजी जम्प करते|

मनुष्य - आदतन इच्छा करता है,
ऊंचाइयां छूने की, ऊपर उठने की,
उड़ने की, इच्छाओं को पंख देने की,
आदतन, स्वाभाविक, स्वैच्छिक|

आश्चर्य - पहुँच उन ऊंचाइयों पर,
जहाँ कुछ ही लोग पहुंचे हैं,
गहराई उसे खींचती है,
नीचाई लुभाती है, ललचाती है

आदमी - जो अब तलक,
ऊंचाइयों को लक्ष्य बनाये था,
खींचता चला जाता है,
फिसलता है, कूदता है

ख़ुशी से, स्वेच्छा से, ऊंचाई से
नीचाई तक का सफ़र तय करता है,
तेज और तेज, अवरोध रहित,
तत्पर, आकुल - छूने को धरातल, रसातल|

जिद्द…

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नहीं तोड़ेगा कमर वो दुपहरी की धूप में 
घर भर का चूल्हा सुलगाने के लिए अब   
हम उस इंसान को ही जलाने पे तुले हैं


खोखले वादों से झूठे सपने दिखा और  
हालात के तम में भीड़ को गुमराह कर
हम सैलाब का संयम आजमाने पे तुले हैं

देवताओं के बुतों को मंदिरों में बिठाने
और मोम के पुतले महलों में सजाने  
हम रोज़ कुछ बस्तियां गिराने पे तुले हैं

विश्व भर को अहिंसक स्वयं को बता कर
दो शब्द करुणा के समझने के लिए अब 
हम खुद ही को असमर्थ बताने पे तुले हैं

सदा ही जयते जहाँभर की विषमता पर 
आज अपने ही सब अंतर द्वंदों के समक्ष
हम आखिर-कार घुटने टिकाने पे तुले हैं

तब राख से उठने की चाहत लेकर चले थे 
ये किस मुकाँ पे आ गए की आज देखो
हम खुद ही को ख़ाक में मिलाने पे तुले हैं

Photo Courtesy: Flickr

खुद से बहाने

Seven

शिक्षा पाने के बहाने रट ली कुछ दो चार पोथी  
तथ्य सब कंठस्थ थे पर तत्व बोध हुआ नहीं
जब भी कोई बुद्ध बोधिसत्व की बात बताएगा 
तब ज्ञान होने के स्वयं को क्या बहाने देंगे हम

 
शक्ति पाने के बहाने सदा तन ही बलिष्ठ किया 
नसें ढीली पड़ती रहीं दिल हिम्मत खोता गया
जब किसी कठोर निर्णय पे ये कदम डगमगायेंगे
तब साहस होने के स्वयं को क्या बहाने देंगे हम

उम्र भर बस अपना ही सोचा और बाकी गैर रहे
फिर भी अपने ज़मीर के खुद अपने से ही बैर रहे
जब कभी अगर आईने में खुद से रु-ब-रु आयेंगे
तब नज़र मिलाने के स्वयं को क्या बहाने देंगे हम  

कल की तैयारी के बहाने सारे आज बिता दिए
वर्ष, मास, हफ्ते की भीड़ में क्षण सारे गुमा दिए  
जब कभी ये वक़्त-पात्र रीत कर खाली हो जायेगा  
तब कौन से कल के स्वयं को कुछ बहाने देंगे हम

उत्तर ना पा पाए जिनके उन प्रश्नों को ही भुला दिया
व्यर्थ रहा जीवन जो बस बहानों में ही बिता दिया
जब जिंदगी पाने के कारण ज्ञात कभी हुए ही नहीं
तब मौत तुझे जीने के आखिर क्या बहाने देंगे हम

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जानता नहीं हूँ

चला था जहाँ की राहों पे, उस भीड़ में, मदांध Five
तलाशने सारी खुशियाँ
बढ़ता गया बस - क्यूँ - जानता नहीं हूँ


ज़रूरत, इच्छा, लालसा और फिर बस झक
उस कबाड़ के पहाड़ में
कुछ अपना खो गया - क्या - जानता नहीं हूँ

लक्ष्य सदैव क्षितिज रहा, मरीचिका रही
ऊंचे चढ़े और आगे भागे
कभी देखूंगा पीछे - कब - जानता नहीं हूँ

सदैव आगे या पीछे ही रहे सब, कोई साथ नहीं
जीवन है या कोई दौड़
बस जीत है या हार - किस से - जानता नहीं हूँ

मेरा जीवन, मेरा दिल, मेरा मन, मेरा तन
पूछूँ खुद से खुदा से
आखिर 'मैं' हूँ 'मैं' - कौन - जानता नहीं हूँ

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बदलते नज़रिए..

Photo 1

बच्चों के सपनों की ऊंची उड़ान में
बृहद रंगों में, नीले आसमान में
निश्चिन्त आसां खूबसूरत जहान में
चिंता से परे और मस्ती में डूबी
- ज़िन्दगी सलोनी सी

खोये प्यार के खाली से इंतज़ार में
काली पूनम में, सुलगती बयार में
तनहा पलों की लम्बी सी कतार में
भावना शून्य, कठोर और पथरीली
- ज़िन्दगी निर्मम सी

शायर के सुरमयी गीतों के सांचों में
सावन में भादों में, बूंदों बरसातों में,
वसंत के उन सारे मीठे से रागों में
हर मौसम में कल्पित हसीन सी
- ज़िन्दगी खुशगवार सी

अखबारों की सुर्खिओं के जाल में
खोखले राज में, थोथे व्यापार में
बौराई मानवता के काले विस्तार में
उबलते लावे के ठीक ऊपर बैठी
- ज़िन्दगी क्षणभंगुर सी

पुरातन वक़्त की बातों की लड़ी में
बीते किस्सों में, यादों की कड़ी में
झुर्रियों में उलझे प्रश्नों की झड़ी में
ताल पे पड़ते सूरज के अक्स सी
क्षण क्षण बदलती ये ज़िन्दगी

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कोई बात चले...

मद्धिम सूरज, संतरी आकाश, उजले बादल
उठती लहर, ढलती शाम, हल्का चाँद
शीतल पवन, शांत साहिल, ढीली रेत और मूंगफली - बस
फिर हम बैठें तुम बैठो कोई बात चले

काली रात, जगमगाता शहर, उजली राहें
भागते वाहन, गलियां रोशन, जर्रा रोशन,
ऊंची मीनार वीरान छत ढेर से तारे और चने के दाने - बस
फिर हम बैठें तुम बैठो कोई बात चले

पहली बारिश, सौंधी मिट्टी, टिन की छत
ठंडा फर्श, खुली खिड़की, हल्के छींटे
जलती अंगीठी, उठता धुआं और गरम भुट्टा - बस
फिर हम बैठें तुम बैठो कोई बात चले

भागती ट्रेन, लम्बा सफ़र, साफ़ आसमान,
झिलमिलाती नदी, लम्बा पुल, दूर पहाड़,
खेत खलिहान, पकती फसल और दाल मोठ - बस
फिर हम बैठें तुम बैठो कोई बात चले

चलती घडी, रुका लम्हा, गहरी सांस
कांपते हौंठ, बढती धड़कन, गूँजता सन्नाटा
खामोश जुबान, बोलती निगाह और.... तृप्ति - बस
फिर हम बैठें तुम बैठो कोई बात चले



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