वक़्त पे यार का असर लगता है

 

कुछ भी कहते हुए अब डर लगता है

अब तो ये कहते हुए भी डर लगता है Sixteen

 

अपनी मर्ज़ी से सांसें भर रहा है 

आदमी वो थोडा निडर लगता है

 

आये हैं मेरे दर पे आज वो

दिन का नवां पहर लगता है

 

उठेगा कुछ देर में सांप के फन की तरह

झुका हुआ कोई आदमी का सर लगता है

 

तब कलम से सर फक्र से ऊंचा करने का होता था

अब फक्र से सर कलम करने का हुनर लगता है 

 

सिसकिओं से इक आंसू जीभ तक पहुंचा 

जैसे चख लिया हो कोई समंदर लगता है

 

ना जाता रकीब1 के घर बार बार पर

उसके घर से 'उसका' घर लगता है

 

इक दफा जो गया तो फिर आता ही नहीं

वक़्त पे भी मेरे यार का असर लगता है

 

आरजूओं2 की तिश्नगी3 कब बुझी है पन्त

कहीं रह ही गयी है कोई कसर लगता है

 

 

Image Courtesy: Flickr

1 – रकीब – Rival

2 – आरजू – Desire

3 – तिश्नगी – Thirst