परजीवी

 

हिंद युग्म में पूर्व प्रकाशित

अकेलापन ले जाता है Six

अपने ही आप से दूर
खुद से बाहर होकर
खुद में झाँकने की
ज़रूरत नहीं मालूम होती

दूर से ही दिखती हैं अपनी
खुशियाँ खेलती, रंजिश कांपती 
ख़्वाब आँखें मलते,
उबासी लेता गम और
करवट लेती इच्छाएं

साफ़ दिखता है कि
मेरी ही सोच बढाती है उनको
जब वो चलती है उन में
रगों में खून के सतत
बहाव की तरह

हर विचार एक
ऊर्जा का संचार करता है
इनमें से किसी में
और वो और बढ़ते हैं
ताल में  पत्थर फैंकने से
निकली तरंगों की तरह

जब मैं बाहर हूँ इन सबके
तो ये सब मेरे नहीं हैं
कहीं और के हैं
जो मुझ में जी रहे हैं
एक परजीवी की तरह

और मैं इनका परिचारक
ता उम्र जीता रहा हूँ
इनके पोषण के लिए
इन्होने शने: शने:
मारा है मुझे

मेरी सोच को
नाभि रज्जू कि तरह
इस्तेमाल करके
इन्होने बूँद बूँद
चूसा है मुझे

पर ये सब मैं नहीं
तो मैं कौन हूँ
ये मुझसे नहीं
मैं इनसे नहीं
तो मैं किस से हूँ

यही विचार
तोड़ देता है
मेरा बुलबुले सा अकेलापन
और मैं 'जी' उठता हूँ
परजीविओं के जीने के लिए
नहीं, मैं मरने लगता हूँ 
फिर से |

शायद मरने लगना ही
जीने भर का नाम है|

मैं जानता हूँ
पानी में बढती तरंगों की तरह ही
एक दिन ये परजीवी भी
इतने बढ़ेंगे
कि अपना अस्तित्व खो देंगे
संसृति के इसी ताल में

और फिर से कोई एक और पत्थर फ़ेंक देगा

Photo Courtesy: Flickr

No comments:

Post a Comment

आपकी टिप्पणियां