ज़िन्दगी को चखता जा

 

और मिलें ना कहने वालें 28.jpg
तू खुद से बातें करता जा |

अरण्य1 घने हों, राह अँधेरी 
तू मन को रोशन करता जा | 
 
रास्ते के काँटों को उखाड़कर
तू रात की रानी रखता जा |

कट के ना गिर गिरना हो तो
तू आबशारों2 सा गिरता जा |

तेरे मन में जो कुछ भी हो
तू वही जुबान पे रखता जा |

मीठी, खट्टी, तीखी, कसैली3
तू ज़िन्दगी को चखता जा |

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अरण्य : Forest 
आबशार : Waterfall
कसैली : Bitter

कुछ लोग उसे मसीहा कहते हैं

 

सरापा1 इश्क ही से भरपूर था वो,
कुछ लोग उसे मसीहा कहते हैं |26.jpg

अंदाज़ उन के भी अजीब कम नहीं, 
कभी निहां2 कभी नुमाया3 रहते हैं |

उनके दरमियाँ4 बस मोहब्बत ही थी,
बाकी कहें, कैसे इक दूजे को सहते हैं |

आखिर डूब गया, वो जो कहता था,
कि आ चल दोनों संग संग बहते हैं |

वक़्त धीमे धीमे रिसता5 ही जायेगा,
ऐसे बाँध यक-ब-यक6 नहीं ढहते हैं |

Photo Courtesy: Flickr

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सरापा - From head to toe
निहां - Hidden
नुमाया - Visible
दरमियाँ - Inbetween
रिसना - Leakage
यक-ब-यक - Suddenly

निर्वात

 

निर्वात1 होता है वहाँ

जहाँ कुछ और नहीं होता

 

निश्छल, नि:स्वार्थ2

मानो कहता है

जो तुम ले सको ले लो

जो बच जायेगा वो मेरा

 

अरर्र मेरा नहीं, मैं

जो बचा वहाँ मैं

इतना स्वतंत्र कि 

कभी कैद नहीं होता

आकाशगंगा की

अनंत सीमाओं में भी

 

फिर क्यूँ हम डरते हैं

निर्वात से भागते हैं

नहीं चाहते रहे वो

हमारे अन्दर या

हम वहाँ

 

ना हमें निश्छलता भाई 

ना स्वतंत्रता और ना पावनता

हम बस

मनुष्य ही बनकर रह गए 

 

हम निर्वात में नष्ट होते हैं

नहीं सह सकती हमारी

कमज़ोर धमनियां3 

इतनी शुद्धता, पावनता

 

हम इतने कलुषित हो गए हैं

कि पावनता भक्षक हो गयी है

 

वातावरण धंसे हैं सारे

निर्वातावरण में ही

यही है जो होते हुए भी

नहीं होने का रूप लिए है

 

निर्वात होता है वहाँ

जहाँ कुछ और नहीं होता

 

निर्वात सत्य है - सत्य

'कुछ और' कभी नहीं होता 

बस सत्य होता है

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1. निर्वात = Vacuum

2. नि:स्वार्थ = Selfless

3. धमनियां = Nerves

ख्वाब

 

ख़्वाबों ने ख़्वाबों में इक ख्वाब देखा है 24.jpg
ख्वाबों में इक ख्वाब लाजवाब देखा है 
पूरे होने की उम्मीद जितनी भी हो सो हो
उन्होंने क्षणभंगुर ख़्वाबों का रुबाब देखा है

ख्वाब जो आँखों की सरहद पार ना कर सके
ख्वाब जो हकीकी से आँखें चार ना कर सके
खिलने का मौका मिल सका ना जिन्हें
ख्वाब जो अपने यार का दीदार ना कर सके

ख्वाब जो पूरी नींद से भी महरूम रह गए
ख्वाब जो निराशाओं के सितम सह गए
खुली हुई आखों को भी परेशान कर करके
ख्वाब जो पल भर में कई दास्ताँ कह गए

ख्वाब जो हवन की जलती हुई आग थे 23.jpg
ख्वाब जो जोग और बिहग के राग थे
धूपबत्ती के धूएँ की महक से फैले हुए
ख्वाब जो रंगीन बुलबुलों का  झाग थे

ख्वाब जो अब भी कितनों के जीवन की डोर हैं
ख्वाब जो आज भी रातों में बिखरे चारों ओर हैं
जितने चले गए हों चाहे पर आगे और भी आयेंगे
ख्वाब जो पाकर अमरत्व मस्ती में सराबोर हैं

 

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एक आदमी और मरा है

 

कुछ दोस्तों के प्रहार से
कुछ नियति की मार से 
एक आदमी और मरा है
पीठ में हो या दिल में
कहीं कोई खंजर गड़ा है

गिरकर उठकर बारम्बार 17
सहके वक़्त की थोड़ी मार
एक आदमी और मरा है
सांस तो चल ही रही है
इसीलिए ज़ख्म हरा है

जीवन की भेड़चाल से
या बंदूकों की नाल से 
एक आदमी और मरा है
दिमाग मेरा खोया-सोया
मन वैसे ही अधमरा है

धर्मों की पोथी पढ़कर या
कर्मों का लेखा लिखकर
एक आदमी और मरा है
फूटना था अपने सर पे ये,
अपने ही पापों का घड़ा है

ख्वाबों का अम्बार लिए
कुछ दारुण पुकार लिए
एक आदमी और मरा है
शीत के अंधड़ तूफानों में
इक पीपल शायद गिरा है

 

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Dedicated To: Srikant Verma’s poem Hastakshep/Magadh

वक़्त पे यार का असर लगता है

 

कुछ भी कहते हुए अब डर लगता है

अब तो ये कहते हुए भी डर लगता है Sixteen

 

अपनी मर्ज़ी से सांसें भर रहा है 

आदमी वो थोडा निडर लगता है

 

आये हैं मेरे दर पे आज वो

दिन का नवां पहर लगता है

 

उठेगा कुछ देर में सांप के फन की तरह

झुका हुआ कोई आदमी का सर लगता है

 

तब कलम से सर फक्र से ऊंचा करने का होता था

अब फक्र से सर कलम करने का हुनर लगता है 

 

सिसकिओं से इक आंसू जीभ तक पहुंचा 

जैसे चख लिया हो कोई समंदर लगता है

 

ना जाता रकीब1 के घर बार बार पर

उसके घर से 'उसका' घर लगता है

 

इक दफा जो गया तो फिर आता ही नहीं

वक़्त पे भी मेरे यार का असर लगता है

 

आरजूओं2 की तिश्नगी3 कब बुझी है पन्त

कहीं रह ही गयी है कोई कसर लगता है

 

 

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1 – रकीब – Rival

2 – आरजू – Desire

3 – तिश्नगी – Thirst

सपने

 

बंधन कुछ कहने को तो कच्चे होते हैं

टूटें तो हर ओर सिर्फ परखच्चे होते हैं

 

आँख मूँद तमाशा देखते रहे हैं सारे बड़े लोग

'ये हो क्या रहा है' पूछने को बस बच्चे होते हैं

 

ज़मीर के हमाम में मैले कुचले से लोग

भीड़ में आकर सब के सब अच्छे होते हैं 

Fourteen

 

मेहनत, लगन, उम्मीद - जब तक सांस चले

जो ना मिले वो खट्टे अंगूरों के गुच्छे होते हैं

 

दुनिया गफलत में ही डालती रहेगी तुझे पन्त

तेरे सपने सच ना भी हों लेकिन सच्चे होते हैं

 

 

 

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परिक्रमा

 

वक़्त भुला देता है2826692101_b695584938_m
ग़म हँसी वेदना उल्लास
बीतते वक़्त के साथ ही
सूक्ष्मतर होती जाती है
आदमी की याद में कैद
उसकी बीती हुई ज़िन्दगी
उम्मीद नाउम्मीद के बीच
फंसा हुआ उसका भविष्य
सिमटता जाता है
संग्रहालयों में बंद
इंसानियत का इतिहास
दुनिया को और छोटा 
करता जाता है भविष्य


सिमटता जाता है
ज़िन्दगी का लैंड स्केप
कैनवास के बीच बने हुए
इक छोटे से बिंदु में
उसी बिंदु से शायद
जहाँ से फट पड़ा था ब्रह्माण्ड  
बीतते वक़्त के साथ
लगता है सब सिमटता जाता है
उसी बिंदु में

जैसे घूमती धरती के मानिंद
वक़्त इक परिक्रमा पूरी कर आया हो
अपने किसी आराध्य प्रेम की
जो सूरज की भांति उर्जा देता है
चलते वक़्त को
और वक़्त बिना ये सोचे की
वो अंत के करीब है या

फिर से आदि पे पहुँच गया है
शुरू कर देता है अगली परिक्रमा

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चाहत

 

फूलों की छुअन में इक नुकीला एहसास है2336528179_44c3671ceb_m
इक अदद मुस्कान में थोडा लग रहा प्रयास है
खुर्द से इकरार में भी कुछ तो विरोधाभास है
ये मुसाफिर इतना चल कर है अब ये कह रहा
रह गयी थोड़ी सी दूरी वो मिटाना चाहता हूँ

लम्हा ए दीदार से मिट चुकी जो प्यास है
कोई लफ़्ज़ों से करे इसके दर्द का इलाज़ है
आलम ए महफ़िल लगता अब कुछ ख़ास है
अजब चाहत है ये दिल की है अब ये कह रहा
दूर जाकर यूँही फिर से पास आना चाहता हूँ

इक अरसे से होती जा रही जो कैसी ये तलाश है
आखिर ढूँढने को क्या - छानी पूरी कायनात है
खोजते निकले दिन सारे नहीं चैन इक रात है
मिल गयी मंजिल उसे जो है अब ये कह रहा
ढूंढता हूँ औरों में जो वो खुद में पाना चाहता हूँ

नब्ज़ होती कुछ शिथिल है थोडा छा रहा उन्माद है

लगता है की रक्त बस बाहर बहने को बेताब है
भावनाएँ लाख लगती कि जैसे गिर रहा प्रपात है
जागती आँखों का भी हर स्वप्न है अब ये कह रहा
आँख मूँद सब छोड़ छाड़ बस सो जाना चाहता हूँ

क्या है जीवन - किसी रूह पर इक जिस्म का लिहाफ है
क्या है जीवन - गिनती भर की साँसों का ही हिसाब है
क्या है जीवन - अंतिम नींद की सहर तक का ख्वाब है
थक चुका मेरा अंतर्मन है हार कर अब ये कह रहा
दे चुका हूँ सब जवाब अब अंजाम पाना चाहता हूँ

 

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नामाबर

 

हिंद युग्म में पूर्व प्रकाशित Eleven


तू उठे तो उठ जाते हैं कारवें
मेरे जनाजे में ऐसा काफिला नहीं आता,

तू थी तो हर्फ़ हर्फ़ इबादत था
तेरे बिना दुआओं में भी असर नहीं आता

कभी हर राह की मंजिल थी तेरी गली
अब तेरे शहर से कोई नामाबर नहीं आता

एक आंसू नहीं बहाने का वादा था
निभाया, अब लहू आता है अश्क नहीं आता

मेरे दिल के दर्द, मेरी रूह के सुकूं
जान जाती है मेरी तू नज़र नहीं आता

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